Pages

Friday, December 17, 2010

भामाशाह को नहीं मिलता पुरस्कार

चालीस साल रिक्शा चला बनवाई धर्मशाला

आज शहरों में जब धर्मशालाओं को तोड़कर आर्थिक लाभ की दृष्टि से सर्वसुविधायुक्त काम्प्लेक्स तैयार किए जा रहे हों और सेवा-परोपकार का लाभ कमाने की होड़ में कोई स्थान नहीं रह गया है। ऐसे दौर में अपनी जीवन भर की पूंजी इकट्ठा कर धर्मशाला बनवाने वाले संत सदाराम बांधे जैसे लोग बहुत ही मुश्किल से मिलते हैं। इस 75 वर्षीय वृध्द ने उम्र भर रिक्शा चला एक-एक पैसा जोड़कर जो काम कर दिखाया, उसे करने में आज बड़े-बड़े धन्नासेठ बचते हैं। लेकिन इसे विडम्बना ही कहेंगे कि ऐसी शख्सियत को आज अपनी वृध्दावस्था पेंशन और गरीबी रेखा राशन कार्ड बनवाने के लिए दर-दर भटकना पड़ रहा है। ऐसे दानवीर शासन के भामाशाह सम्मान के भी पात्र नहीं समझे जाते।
संत सदाराम बांधे ने सड़कों पर चालीस साल रिक्शा चलाकर तीन लाख रुपए जोड़े और दो लाख में अपना मकान बेचकर पांच लाख रुपए की लागत से गिरौदपुरी में तीर्थयात्रियों व दर्शनार्थियों की नि:शुल्क सेवा के लिए दस कमरों की धर्मशाला का पिछले वर्ष निर्माण करवाया।
सतनामी समाज की गुरूमाता से प्रभावित होकर सदाराम ने अपनी पत्नी की याद में असहाय लोगों के लिए सिर छिपाने की जगह तैयार की और इसे सतनाम धर्मशाला नाम देकर गुरूमाता को समर्पित किया। पांच साल पहले अपनी पत्नी के निधन के बाद जीवन गुजारने के लिए उसके पास आय का कोई साधन नहीं है। सदाराम का नाम उनके दीर्घावधि सेवा, कार्यों और अभूतपूर्व योगदान के लिए गुरूघासीदास पुरस्कार के लिए अनुशंसित किया जा चुका है। यह पुरस्कार उन्हें नहीं मिला। वैसे तो वे दानवीर भामाशाह के नाम पर दिए जाने वाले राजकीय सम्मान के स्वाभाविक हकदार हैं, लेकिन यह पुरस्कार भी उन्हें नसीब नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि हर वर्ष अमीरों को मिलने वाला यह पुरस्कार के लिए आज के ऐसे भामाशाह योग्य नहीं हैं। गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में सदाराम जैसी कई हस्तियां हैं जिन्होंने जीवन में संघर्ष कर जो कुछ भी कमाया उसे सामाजिक काम के लिए दान में दे दिया रायपुर के नगरमाता बिन्नीबाई सोनकर उनमें से एक हैं।

1 comment: