भारत में आधुनिक मीडिया जिस तरह से अपना दायरा बढ़ाता जा रहा हैं और समाचारों को जल्द से जल्द पहुचाने की होड में जो प्रतिस्पर्धा बढी है वह समाचार की गुणवत्ता के लिए किस हद तक प्रासंगिक है यह विचार करने योग्य विषय है। मीडिया के प्रभाव के चलते व्यवस्था में जो पारदर्शिता आयी है उसका श्रेय भले ही मीडिया को दिया जाता रहा हो किंतु इस तथ्य से भी मुंह नही मोड़ा जा सकता कि मीडिया कन्टेन्ट को लेकर उसकी आलोचना भी होती रही है। भारत के ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तो पायेंगे कि देश में आधुनिक मीडिया का विकास अधिक पुराना नहीं है जहां पहले सिर्फ समाचार पत्रों का ही प्रभुत्व था वही ९० के दशक में सेटेलाइट चैनलों की दस्तक के साथ ही देशवासियों को मीडिया का नया स्वरूप देखने को मिला। बढते प्रभाव के कारण मीडिया की आलोचना भी हो रही है।
बात सिर्फ खबरिया चैनलों तक सीमित होती तो भी ठीक था। लेकिन जिस पैमाने पर फूहडता और अश्लीलता को मनोरंजन चैनलो में बढावा दिया जा रहा है वह मीडिया के जमीनी प्रभाव और विश्वसनीयता के लिये खतरे की घण्टी है वैसे हमारे
देश
में चैनलों पर चलने वाले कार्यक्रमों के लिए कोई मानक नहीं है जिसका जो मन करता है उस हिसाब से कार्यक्रम बना कर परोस देता है। ऐसा लगता है कि मीडिया सिर्फ सनसनी फैलाकर सुर्खियां बटोरने और कम से कम समय में पैसा कमाने का साधन मात्र बन कर रह गया है मनोरंजन चैनलों के रियेलिटी शो में अगर गालियों की भरमार रहती है तो खबरिया चैनलों के समाचार दुनिया खत्म होने की भविष्यवाणियां करते नहीं थकते मनोरंजन चैनल मनोरंजन के नाम पर अश्लीलता ओर फूहडता दिखा रहे हैं सबसे तेज चलने की होड में समाचार चैनल भी पीछे नहीं है वे खबरों के नाम पर राखी के नखरे और भविष्यवाणियों के नाम पर ज्योतिषियों के टोटकों को परोस रहे हैं। सरकार द्वारा आपत्ति जताने के बावजूद मीडिया दिग्गजो पर कोई असर नहीं हुआ और वह इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार बताकर सरकार के तर्क को भी खारिज करने से नही हिचके।
गहराई से छानबीन करने पर मीडिया की अन्दरूनी तस्वीर कुछ इस प्रकार से सामने आयी दरअसल नब्बे के दशक से अपनाये गए नवीन सुधारों के बाद से ही मीडिया एक ऐसा उद्यम बन गया है जिसका उद्देश्य सिर्फ लाभ कमाना है। आज का मीडिया सिर्फ उस सामाजिक तबके पर केन्द्रित है जिसके पास अतिरिक्त क्रय शक्ति है और यही वह तबका है जो उपभोक्तावाद का शिकार है। इन रूझानों के साथ मीडिया की साख पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। मीडिया और समाज के बीच एक खाई पैदा हो गई है व्यापारीकृत मीडिया काफी हद तक समाज का प्रतिबिम्ब नहीं रह गया है और तो और समाज को प्रभावित करने के उसकी क्षमता भी संकीर्ण होती जा रही है एक ओर विज्ञापन उद्योग मीडिया और उपभोक्ता के पारस्परिक सम्बन्ध इस विकासशील समाज में अभी परिभाषित ही हो रहे हैं तो दूसरी ओर भारतीय समाज लोकतंत्र और मीडिया के बीच के सम्बन्ध एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिनकी स्पष्ट तस्वीर खींचना आज की तारीख में सम्भव नहीं दिखता।
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